Monday 9 April 2012

मेरी आदत नहीं है ये

मेरी आदत नहीं है ये, मैं, यूँ ही हल्ला नहीं करता
सन्नाटों से डर नहीं होता, तो उनपे हमला नहीं करता |

तुम्हारी आँख में चश्में दिखे थे, बाद मुद्दत के
मैं जब सहराओं से गुज़रा हूँ, कभी ठहरा नहीं करता |

पकड़ मेरी ही शायद कुछ ज्यादा, सख्त रही होगी
गले मिलने में अब तक वो कभी चीखा नहीं करता |

बिछड़ने का कहाँ गम था, कोई तिनका रहा होगा
आने जाने में अब उसके, आँखें मींचा नहीं करता था |

बगल के घर में भी एक घर बना लेता अगर बूढ़ा
मेरा दावा है तन्हा हो के भी तन्हा नहीं मरता |

तवायफ ने अगर खुद को तवायफ कह दिया होता
ज़माने में कहाँ दम था फिर यूँ फिक्रें किया करता |

मेरी ज़मीन से उठकर, देखो कितनी तपिश में है
सूरज - ज़मी पर गर रहा होता, अभी भी सोंधा हुआ करता |

शिकायत कहने सुनने से, मसले सुलझ ही जाते हैं
प्यार अँधा तो होता है, मगर बहरा नहीं होता |

मेरे माथे पे बल पड़ते हैं, जब ये सोचता हूँ मैं
जब जब लुटा हूँ मैं, तुमपे पहरा नहीं होता |

किसी झोपड़ की बेटी की ,वो जब तकदीर लिखता है
वहां दूल्हे तो होते हैं, उनका चेहरा नहीं होता |

मेरा कद बालिश्तों में नापने वालो ज़रा सुन लो
मैं सागर हूँ और कुछ भी, मुझसे गहरा नहीं होता |

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