Friday 2 May 2014

तुम्हारा शहर

जब कभी आँखें मूँदता हूँ
और सोचता हूँ तुम्हें,
किसी मानचित्र की तरह
तुम्हारा शहर मेरे सामने उभर आता है ।

लगता है अभी कल ही तो
साईकिल से
मालरोड का एक चक्कर लगाया था
और वो जब अचानक
खट ट ट की आवाज से चौंक गये थे !
पहिये की एक तीली टूट गयी थी
और तुमने दूसरी तीली में उसे लपेट दीया था।

किस गली से किस सड़क का शार्टकट है,
किधर से होकर नहीं जाना है
और किस मोड़ से कितने बजे ही जाना है
सब याद है ।
.
.
..

....
भीड़ बहुत बढ़ गयी है
गालियां भी साफ़ दिखाई नहीं देतीं अब तो,
लोग भी बदल गये हैं
वो रिश्ते भी कहाँ रहे हैं
और तुम भी तो ....

बेवजह, तुम्हे तकलीफ होगी
और मुझे अफ़सोस !
भटक जाने से तो यही बेह्तर है
कि ज़रा सुकून मिले तो
आँखें मूँदता हूँ
और सोचता हूँ तुम्हें,
फिर किसी मानचित्र की तरह
मेरे सामने उभर आएगा
तुम्हारा शहर ।

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