Thursday 26 December 2013

है प्यार बहुत और प्यार बहुत, होना भी चाहिए

है प्यार बहुत और प्यार बहुत, होना भी चाहिए
पर घर में कहीं केवल अपना कोना भी चाहिए
अपने मिलने जुलने में, इतनी तो गुंजाईश रहे
मैं, मैं ही रहूँ और तू भी खुद में तू होना चाहिए ||

थकी पीठ को तपती छत पे, चलो सेकते हैं
खुली आँख, तारों में सपने, चलो देखते हैं
अपने हिस्से में पड़े पड़े, कुछ बीती याद करें
तकिया अपना अपना और इक बिछौना चाहिए ||
मैं, मैं ही रहूँ और तू भी खुद में …

बहुत तेज़ चलने में मोड़ पर डगर छूटती है
हो बहुत दिनों की भले दोस्ती मगर टूटती है
बिन सोचे-समझे कहने कि उम्र अलग होती है
इस दौर में तो हर हर्फ़ का मतलब होना चाहिए ||
मैं, मैं ही रहूँ और तू भी खुद में …

मेरे हिस्से की कुछ ज़मीन

मेरे हिस्से की कुछ ज़मीन,
समंदर में चली जाती है, हर रोज़
और बचे रहने की मेरी फ़िक्र
बढती है, बढ़ी जाती है, हर रोज़ ॥

साथ सूरज के मैं उगता हूँ, उभरता हूँ,
जुड़ता हूँ क़तरा क़तरा
बाद अमावास के जो बिगड़ी,
बिगडती जाती है, हर रोज़ ॥

इन लहरों को घुड़कता हूँ,
पकड़ रखता हूँ,किश्ती पर अपनी
पर मेरे कद से बड़ी, कोई लहर,
चढ़ ही आती है, हर रोज़ ॥

मेरे वजूद के हिस्से थे,
वो जो आज, वहां दिखते हैं,
मेरे यकीन की ज़मीं, अब दरकती है
बिखर ही जाती है, हर रोज़ ॥

तनहा यूँ ही ना हुआ, एक दिन में,
मैं टूटा हूँ तिनका तिनका
फिर कोई फांस उसकती है, उभरती है,
उखड़ ही जाती है, हर रोज़ ॥

मेरे हिस्से की कुछ ज़मीन,
समंदर में चली जाती है, हर रोज़
और बचे रहने की मेरी फ़िक्र
बढती है, बढ़ी जाती है, हर रोज़ ॥

Thursday 19 December 2013

...बूढ़े रिश्ते

गिरते पत्ते देख देख कर
दरख़्त पुराना सोच रहा है
ना कोई तेज़ हवा आई है
ना कोई पतझड़ गुज़रा है
क्या मुझे, नज़र लगी है कोई
या ऋतु-का यौवन उतरा है
कैसे कई बरस के रिश्ते
आज जमीं पर गिरे पड़े हैं
एक एक कर ये सभी उगे थे
एक एक कर ही सब बिछड़े हैं ।।

उजड़ी रंगत देख देख कर
बूढ़ा बरगद सोच रहा है
कितने सावन आँखों देखे
कितने पतझड़ गुजर गए
पात पुराने गिरते ही हैं
फिर आते हैं पात नए
पर कैसे मोह विगत कर दूं
हम संग बढ़े संग खेले हैं
सर्दी-गर्मी, धूप-छांव
संग आंधी-पाला झेले हैं ।।

बिखरे रिश्ते देख देख कर
शख्स पुराना सोच रहा है
अब ये कैसी हवा चली है
कैसी परिभाषा बदली है
आजीवन के संगी थे जो
फिर रिश्तों को सोच रहे
वर्षों, पेड़ों को क्या सीचेंगे?
हफ़्तों की फसलें रोप रहे

बलुई ज़मीन पर बड़े दरख़्त
कभी नहीं लहराये हैं
छुई मुई से नाते हो जब
छूते ही मुरझाये हैं ।।

रिश्ते, बूढ़े होते देख देख कर
दरख़्त पुराना सोच रहा है ।।

Thursday 1 August 2013

मैं समुद्र हो रहा हूँ या शूद्र हो रहा हूँ

समाहित कर लेता हूँ
नितांत गरल
और अचल रहता हूँ
ना मेरा आकार बढ़ता है
ना स्वरुप बदलता है
मैं क्या हो रहा हूँ
समुद्र हो रहा हूँ या शूद्र हो रहा हूँ

अनछुआ हूँ
आंधी-पाला-बरसात से
जीवित हूँ
आभाव में दुराव में
ना मेरा स्वभाव बदलता है
ना व्यवहार बदलता है
मैं क्या हो रहा हूँ
समुद्र हो रहा हूँ या शूद्र हो रहा हूँ

क्षमा ही मेरा संस्कार हो
मृदुल ही मेरा आचार हो
और सार्वजनिक हो
मेरा स्वाभीमान
मेरी निजसत्ता
मेरी अद्वितीयता
मैं क्या हो रहा हूँ
समुद्र हो रहा हूँ या शूद्र हो रहा हूँ

मुझे मर्यादाओं का ज्ञान रहे
सीमाओं का भान रहे
ऐसे अस्तित्व में ही निहित
कैसे स्वयं का मान रहे
किंकर्तव्यविमूढ़
निरुपाय हो रहा हूँ
मैं क्या हो रहा हूँ
समुद्र हो रहा हूँ या शूद्र हो रहा हूँ

Friday 28 June 2013

प्रकृति जब जागेगी

बलिदान कहो या आहूति
दान कहो या त्याग
...... करना होगा |

अतृप्त क्षुधा के मौन का
है अंतराल इतना लम्बा
...... भरना होगा |

सूख चुके हैं वक्षोरूह
अब मत नोचो !
होगा कुरूप कितना भविष्य
कुछ तो सोचो !
समय रहे न चेते तो
यह तय समझो,
प्रस्ताव नहीं कुछ भी होगा
निर्णय समझो

जब कभी मौन ये टूटेगा
निश्चेष्ट चेतना जागेगी
मांगेगी तो हे! मानव
प्रकृति लहू ही मांगेगी ||

11.10.98

Friday 7 June 2013

धूप ने खिड़की बदल ली है !

धूप ने खिड़की बदल ली है !
अब वो उस पुरानी खिड़की से नहीं आती
इधर से आती है,
और इतने से ही बदल जाती हैं
अँधेरे और रौशनी की जगहें
बदल जाते हैं दीवारों के रंग
और बदल जाता है कमरा मेरा ॥

धूप ने खिड़की बदल ली है !
अब चमकती दीवार इधर की है
और उस पुरानी दीवार पर
अँधेरा ही रहता है ।
नाखून से खुरच कर बनाए
वो आड़े टेढ़े निशान
अब साफ़ नज़र नहीं आते ।
अभी तो समझ भी ना पाया था
क्यूँ खींचे थे और तब तक,
धूप ने खिड़की बदल ली है ॥

धूप ने खिड़की बदल ली है !
और बहुत से
नए साये नज़र आने लगे हैं,
निरंकुश साये !
पुराने साये कमरे का हिस्सा से थे
इसलिए कभी साये लगे ही नहीं
और ये नए अजनबी साए
किसी अनचाहे मेहमान की तरह
कब्जा किये बैठे हैं ।
अब जाने कब सूर्य उत्तरायण हों ॥

धूप ने खिड़की बदल ली है !
और किसी ढीठ की तरह
सबसे पीछे के कोने पे जा बैठी है
मेरे साँझ से कोने पे !
वो कोना जो मेरे अंतर के अन्धकार को
समेट लेता था खुद में
मुझे छुपा लेता
और कोई देख नहीं सकता था
नमकीन पानी के सूखे निशानों को
बेवक्त की अजानों को !
मगर अब धूप ने खिड़की बदल ली है ॥

रिश्ते यूँ ही अचानक नहीं बदलते
परिभाषाएं बदलती हैं
और किसी दिन अचानक
बेधड़क वो घुस आती है
नितांत मेरे कमरे में
अपना हिस्सा मांगने
तमाचा मार कर उठाती है
बताती है कि हिस्सेदार और भी हैं
और तब पता चलता है
धूप ने खिड़की बदल ली है
अब वो उस पुरानी खिड़की से नहीं आएगी,
कभी नहीं आयेगी ॥

Wednesday 5 June 2013

ख्वाब पड़े है इधर उधर, और हैं हथेलियाँ दो ही ...

ख्वाब पड़े है इधर उधर, और हैं हथेलियाँ दो ही
कभी कुछ छूट जाता है, कभी कुछ छूट जाता है

हक़ीक़तों की ज़मी है सख्त बहुत पत्थर पत्थर
कभी कुछ टूट जाता है,कभी कुछ टूट जाता है

हरेक उम्मीद को कुछ कह के मैं समझा ही देता हूँ
कहीं कोई झूठ जाता है, कहीं कोई झूठ जाता है

तुम्हारे नाम को मैंने, दफनाया था बहुत गहरे
कभी कोई ढूंढ जाता है, कभी कोई ढूंढ जाता है

मना तो लूं मगर कब तक, वही नौ दस तरीके हैं
कभी कोई रूठ जाता है, कभी कोई रूठ जाता है

मेरे काँधे पे मेरे दोस्त कितनी बार जीतेंगे
मेरी आँखों के आगे आँख, कभी कोई मूँद जाता है
................................कभी कोई मूँद जाता है

Monday 13 May 2013

बहुत कठिन है ये दुनियादारी !

पूरे बिस्तर पर बिखरी हैं
बेतरतीब, गैर जरूरी चीज़ें
एक रूमाल, कल का अखबार
हिसाब की कापी, फोटो एलबम
और मोबाईल का चार्जर ।

और इनमें ही उलझ के
कहीं गुम जाती है मेरी नींद ...

खुद तो नहीं आये ये सब
तब मैं ही लाया और छोड़ दिया वहीँ
...अब आँखों में चुभते हैं ।

जब आँखों में नींद भरी हो
इन्हें देखना भी भारी लगता है,

फिर अचानक लगता है
उलझन यहाँ नहीं है...
कहीं और है
मुझे पहले ही
अपनी वस्तुस्तिथि का ज्ञान होना चाहिए ।

कहाँ मैं निपट ढोल-गंवार
किस्से कहानियों में जीने वाला
और कहाँ ये सयाने
वक़्त की समझ रखने वाले लोग ।

अब रिश्ते उलझ रहे हैं,
दायरा बहुत बढ़ गया है शायद
समेट ही लेता हूँ कुछ खुद को
ये तो सुलझने से रही ।बहुत कठिन है ये दुनियादारी !

Monday 6 May 2013

दिल भी मेरा पत्थर का ही होगा

मैं बहुत सख्त हूँ-बहुत सख्त! ...बताया था यही मैंने
वो यही जानता है दिल भी मेरा पत्थर का ही होगा ॥

बिछड़ कर मुझसे वो टूटा भी और कमज़ोर भी हुआ
कलाई पर निशां गहरा किसी नश्तर का ही होगा ॥

फूँक कर पाँव रखते हो, सोच कर बात कहते हो
तुम्हारे इस हुनर में हाथ एक ठोकर का भी होगा ॥

अभी भटके हो सहरा में, अभी कुछ दिन यही होगा
हरएक निशां पे बोलोगे किसी लश्कर का ही होगा ॥

वो रोया खून के आंसू और जिसका दिल नहीं पिघला
क्यूँ ना कह दूं वो भगवान् भी पत्थर का ही होगा ॥

(05.05.2013)

Saturday 4 May 2013

मैं कैसे मान लूं कि है वही चाहत पहले वाली

घड़ी भर भी नहीं बोले, रहे घंटों तक संग मेरे
मैं कैसे मान लूं कि है वही चाहत पहले वाली ||

वो पहले तो मेरी बातों पे जैसे झूम जाते थे
मेरी आहट पे उनके रस्ते भी तो घूम जाते थे
वही अब हैं मेरी आवाज़ भी ना पहचान पाते हैं
रही ना शायद अब उनको कोई आदत पहले वाली ||

मेरी बातें मेरे सपने यही थे रात दिन कुछ दिन
के जैसे सांस भी लेना गवारा था ना मेरे बिन
और ये क्या है कि संग बैठे है फिर भी साथ नहीं हैं
मैं कैसे मान लूं कि है वही साथी पहले वाली ||

नहीं मिलती नज़र से यूँ नज़र के चैन आ जाये
नहीं मिलते हैं अब ऐसे सुबह से रैन आ जाये
मगर अब मिलते हैं ऐसे के जैसे रस्म हो कोई
नहीं मिलती मुझे मिलके वही राहत पहले वाली ||

घड़ी भर भी नहीं बोले, रहे घंटों तक संग मेरे
मैं कैसे मान लूं कि है वही चाहत पहले वाली ||

Friday 3 May 2013

वर्ष 1989 की गर्मियों की छुट्टी में अपने गाँव, जिला जौनपुर में प्रवास के दौरान कुछ ऐसे परिवारों के बारे में सुना जिनके बच्चों ने दूध के विषय में केवल सुना ही होता था | दूध का स्वाद वो नहीं जानते थे | कुपोषण और कई बार भोजन का आभाव और उस इलाज़ की सामर्थ्य न होने के कारण बच्चों की मृत्यु तक हो जाती थी | ऐसी ही एक घटना के बाद ये रचना हुई:

माँ जन्नत कैसी होती होगी
क्या उसमें रोटी भी होगी ?
ऐसे सवाल पर माँ हंस दी
एक टूटती आह कस दी |
हाँ बेटा, ऐसी ही होगी
भूख वहां नहीं लगती होगी
दूध चावल मिलता होगा
बच्चों का चेहरा खिलता होगा |
माँ दूध कैसा होता है
गुड़ से मीठा होता है ?

माँ की नज़रें फिर से फिर गयीं
दो बूँदें अश्कों की गिर गयीं |
क्या वहां पे खाना बांटता होगा
पेट वहां नित भरता होगा
है सुना वहां ना कोई गम है
वहां गरीबी भी कम है |
जब वहां पे सब सुख पाते हैं
हम क्यों नहीं वहां पे जाते है !
वो नगर नहीं इतना सस्ता
मुझे पता नहीं उसका रास्ता ||

माँ ! वहां तो मर के जाते हैं
फिर हम क्यों नहीं मर जाते हैं
मौत यहाँ कहाँ बटती है
उसकी भी कीमत लगती है |
माँ जन्नत क्या असमान में है ?
अपने तो बस अरमान में है
चल तू एक रोटी खा ले
फिर मैं तुझे सुलाऊँगी
तू सोना परियां आयेंगी
तुझको जन्नत ले जाएँगी ||

पर ये क्या वो तो हो गया पार 
अब कहाँ उसे इसकी दरकार 
मौत के पर ले हुआ परिंदा 
जन्नत का हो गया बाशिंदा ||
(13-07-1989)

Friday 26 April 2013

तुम मिलोगी मुझे

तुम कदम बा कदम तेज़ होते गए
मैं हरएक सांस पे जैसे थमता गया
दोनों के दरमियाँ भीड़ भरती रही
दोनों के बीच कोहरा सा जमता गया ||

एकटक मेरी नज़रें तुम्हें तकती रहीं
पर मुड़ी तुम नहीं एकपल के लिए
धुंध होती रही आँख की रौशनी
बुझने से लगे राह के सब दिए ||

मैं अकेला सनम बस ख्यालों में गुम
सोचता ही रहा जाग कर रात भर
तुम मिलोगी मुझे तुम मिलोगी मुझे
तुम मिलोगी मुझे या जाएगी ये उमर ||

(23.04.1994)

Monday 22 April 2013

फफक के रो पड़ी वो थी

1993 में बलात्कार जैसे जघन्य अपराध कम ही सुनने को मिलते थे, 20 वर्ष की आयु थी, मन बहुत कच्चा था, सही मायनों में पीड़ित की पीड़ा समझ पाने जितनी अकल आयी नहीं थी लेकिन इतना ज्ञान जरूर था कि उस पिता पर क्या बीती होगी, जिसकी आत्मा बस्ती है उस बच्ची में, जिसकी जरा सी पीड़ा से रात भर उसे नींद नहीं आती, इतने बड़े कष्ट पर उसको कितनी पीड़ा हुई होगी | 

शिल्प संबंधी बहुत सी त्रुटियाँ इस रचना में होंगी, फिर भी ये मेरे दिल के बहुत करीब है ...

अश्रु पूर्ण चक्षु थे, विराट गम ह्रदय में था
नहीं किसी ह्रदय में थी, पड़ी कहीं कहर में थी
मिली थी जब मुझे ख़ुशी, फफक के रो पड़ी वो थी |

झुकी झुकी वो जा रही, जाने क्यूँ सिमट गयी
देख मुझे दौड़ के, आ के यूँ लिपट गयी
जैसे मुझसे दूर हो, जहाँ में खो गयी वो थी
मिली थी जब मुझे ख़ुशी, फफक के रो पड़ी वो थी |

नोच के खचोट के, किया था उसका हाल ये
नग्न अंग शील भंग, था कलंक भाल पे
नेत्र उसके बंद थे, गिर के सो पड़ी वो थी
मिली थी जब मुझे ख़ुशी, फफक के रो पड़ी वो थी |

आह एक निकल गयी, देख उसके हाल को
रूह तक विकल भई, पढ़ के उस सवाल को
नीर नयन में लिए, पूछ जो रही वो थी
मिली थी जब मुझे ख़ुशी, फफक के रो पड़ी वो थी |

शांति की कांति अब, थी नहीं ललाट पे
गौर वर्ण पर उतर आये साए रात के
इस जहां की भीड़ में खबर बनी खड़ी वो थी
मिली थी जब मुझे ख़ुशी, फफक के रो पड़ी वो थी |

अस्थियाँ ही शेष थीं, वो मात्र अवशेष थी
या मेरी परी लिए कोई छद्म वेश थी
ठोकरों में थी पड़ी, कभी मेरी मड़ी जो थी
मिली थी जब मुझे ख़ुशी, फफक के रो पड़ी वो थी |

बाहुपाश में पड़ी, सिसक सिसक वो रो रही
अपलक निहारती, नींद में वो खो रही
इस जहाँ में बस जीवित और दो घड़ी वो थी
मिली थी जब मुझे ख़ुशी, फफक के रो पड़ी वो थी |

चेतना रहित नयन, शून्य में निहारते
अधर अगर हिले भी तो, बस मुझे पुकारते
असहाय सा खड़ा था मैं, दर्द से भरी वो थी
मिली थी जब मुझे ख़ुशी, फफक के रो पड़ी वो थी |

लिपटी ही जा रही कि छूट नहीं जाऊं मैं
और फिर मना रही कि रूठ नहीं जाऊं मैं
मोतियों की साँस की टूटती लड़ी वो थी
मिली थी जब मुझे ख़ुशी, फफक के रो पड़ी वो थी |

हर एक पल में दूर वो, और दूर जा रही
आत्मा भी रो पड़े, इस तरह बुला रही
तड़प रही थी आत्मा कि अंग संग जुडी वो थी
मिली थी जब मुझे ख़ुशी, फफक के रो पड़ी वो थी ||

Tuesday 16 April 2013

चिरप्रतीक्षित खिलौना

रोज़ शाम घर पहुँचते ही
वो दौड़ कर आ जाती
और गोद चढ़ जाती थी
कुछ लाये मेरे लिए ?
एक सवाल हर रोज़

मैं थका भी होता था
और खाली हाथ भी
बहका देता
और फिर
हमारा खेल शुरू हो जाता
और खेल खेल में ही
वो भूल जाती थी खिलौना
और मैं भूल जाता था
दिन भर की थकन

एक रोज़
एक खिलौना था मेरे पास
उसके सवाल का जवाब
उसका प्यारा खिलौना
चिरप्रतीक्षित खिलौना

और अब वो
सिर्फ खिलौने से खेलती है
दिन भर खेलती है

रोज़ शाम को घर पहुचते ही
मेरा खिलौना अपने खिलौने के साथ
दौड़ कर आता है और...
अब उसी के साथ खेलता है |

सोचता हूँ
ये दूसरी दुनिया मैंने ही तो दी है
और थकन अब याद रहती है
हर रोज़ |

Saturday 6 April 2013

प्रेम मेरा मझधार

प्रेम शब्द की
इस समाज में
जो भी स्थापित
परिभाषा है
तुम उसके उस पार खड़ी... प्रिये
मैं पड़ा इस पार

मैं पड़ा इस पार
चिल्ला कर पूछ रहा हूँ
क्या मुझसे है प्यार
क्या मुझसे है प्यार
कम से कम इतना कहती
सुनता है संसार... प्रिये
मैं खड़ी इस पार

मैं खड़ी इस पार सखे
सब लाग लपेट करेंगे
बातों से ही अपनी
हर घर के पेट भरेंगे
निर्मोही संसार... प्रेमवर
मैं खड़ी इस पार

ऋतुराज के काज
मन मेरा पल पल पर पीर धरे
तीर तुम्हारा पार
BP 604
कंपन शरीर करे है
राधिके ... प्रेम मेरा मझधार
तुम खड़ी उस पार ।। 

Friday 5 April 2013

जीवन में... धूप बनी रहती है

तुम आ जाते हो... तो जीवन में
एक जीवन उग जाता है
पेड़ हरे हो जाते हैं
आकाश बदल जाता है

कुछ तो है तुममें जो सबका
रंग रूप बदल देता है
संसार बदल देता है
ये भूप बदल देता है

है तुम्हे पता ?
तुममें ज्योति स्वरूपनी रहती है
तुम रहते हो तो जीवन में
धूप बनी रहती है ||

तुम आ जाते हो .... तो मन से
मंद पवन सी उठती है
मन चन्दन हो जाता है
तन चन्दन हो जाता है

एक तुम्हारे होने से
अवसाद चला जाता है
मन को थका देने वाला
हर राग छला जाता है
हँसते गाते मेरे दिन का
एक भाग भला जाता है

जब रहते हो
हर एक भाव में सीध बनी रहती है
दूर कहीं होते हो तो भी
उम्मीद बनी रहती है

तुम रहते हो तो जीवन में
धूप बनी रहती है ||

Tuesday 12 March 2013

रात / नवीन कुमार पाठक

एक तरफ खींचता हूँ
दूसरी तरफ उलझ जाती है
उलटता हूँ पलटता हूँ
ढील देता हूँ
फिर खींचता हूँ
डरता हूँ गाँठ न पड़ जाए
नाखून भी अभी ही काटे हैं
गड़ा के खोल भी ना पाऊँगा

कमबख्त! दिखता भी नहीं है
कहीं सिरा तो होगा ही
वही दिख जाता ।

फिर सोचता हूँ एक गाँठ तो आनी ही है
यहीं से तोड़ कर सिरा बना दूं
और जोड़ दूं सुबह से ।

उलझी हुई डोर की मानिन्द
रात हुई है ।