Friday 3 May 2013

वर्ष 1989 की गर्मियों की छुट्टी में अपने गाँव, जिला जौनपुर में प्रवास के दौरान कुछ ऐसे परिवारों के बारे में सुना जिनके बच्चों ने दूध के विषय में केवल सुना ही होता था | दूध का स्वाद वो नहीं जानते थे | कुपोषण और कई बार भोजन का आभाव और उस इलाज़ की सामर्थ्य न होने के कारण बच्चों की मृत्यु तक हो जाती थी | ऐसी ही एक घटना के बाद ये रचना हुई:

माँ जन्नत कैसी होती होगी
क्या उसमें रोटी भी होगी ?
ऐसे सवाल पर माँ हंस दी
एक टूटती आह कस दी |
हाँ बेटा, ऐसी ही होगी
भूख वहां नहीं लगती होगी
दूध चावल मिलता होगा
बच्चों का चेहरा खिलता होगा |
माँ दूध कैसा होता है
गुड़ से मीठा होता है ?

माँ की नज़रें फिर से फिर गयीं
दो बूँदें अश्कों की गिर गयीं |
क्या वहां पे खाना बांटता होगा
पेट वहां नित भरता होगा
है सुना वहां ना कोई गम है
वहां गरीबी भी कम है |
जब वहां पे सब सुख पाते हैं
हम क्यों नहीं वहां पे जाते है !
वो नगर नहीं इतना सस्ता
मुझे पता नहीं उसका रास्ता ||

माँ ! वहां तो मर के जाते हैं
फिर हम क्यों नहीं मर जाते हैं
मौत यहाँ कहाँ बटती है
उसकी भी कीमत लगती है |
माँ जन्नत क्या असमान में है ?
अपने तो बस अरमान में है
चल तू एक रोटी खा ले
फिर मैं तुझे सुलाऊँगी
तू सोना परियां आयेंगी
तुझको जन्नत ले जाएँगी ||

पर ये क्या वो तो हो गया पार 
अब कहाँ उसे इसकी दरकार 
मौत के पर ले हुआ परिंदा 
जन्नत का हो गया बाशिंदा ||
(13-07-1989)

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