मेरे हिस्से की कुछ ज़मीन,
समंदर में चली जाती है, हर रोज़
और बचे रहने की मेरी फ़िक्र
बढती है, बढ़ी जाती है, हर रोज़ ॥
समंदर में चली जाती है, हर रोज़
और बचे रहने की मेरी फ़िक्र
बढती है, बढ़ी जाती है, हर रोज़ ॥
साथ सूरज के मैं उगता हूँ, उभरता हूँ,
जुड़ता हूँ क़तरा क़तरा
बाद अमावास के जो बिगड़ी,
बिगडती जाती है, हर रोज़ ॥
इन लहरों को घुड़कता हूँ,
पकड़ रखता हूँ,किश्ती पर अपनी
पर मेरे कद से बड़ी, कोई लहर,
चढ़ ही आती है, हर रोज़ ॥
मेरे वजूद के हिस्से थे,
वो जो आज, वहां दिखते हैं,
मेरे यकीन की ज़मीं, अब दरकती है
बिखर ही जाती है, हर रोज़ ॥
तनहा यूँ ही ना हुआ, एक दिन में,
मैं टूटा हूँ तिनका तिनका
फिर कोई फांस उसकती है, उभरती है,
उखड़ ही जाती है, हर रोज़ ॥
मेरे हिस्से की कुछ ज़मीन,
समंदर में चली जाती है, हर रोज़
और बचे रहने की मेरी फ़िक्र
बढती है, बढ़ी जाती है, हर रोज़ ॥
जुड़ता हूँ क़तरा क़तरा
बाद अमावास के जो बिगड़ी,
बिगडती जाती है, हर रोज़ ॥
इन लहरों को घुड़कता हूँ,
पकड़ रखता हूँ,किश्ती पर अपनी
पर मेरे कद से बड़ी, कोई लहर,
चढ़ ही आती है, हर रोज़ ॥
मेरे वजूद के हिस्से थे,
वो जो आज, वहां दिखते हैं,
मेरे यकीन की ज़मीं, अब दरकती है
बिखर ही जाती है, हर रोज़ ॥
तनहा यूँ ही ना हुआ, एक दिन में,
मैं टूटा हूँ तिनका तिनका
फिर कोई फांस उसकती है, उभरती है,
उखड़ ही जाती है, हर रोज़ ॥
मेरे हिस्से की कुछ ज़मीन,
समंदर में चली जाती है, हर रोज़
और बचे रहने की मेरी फ़िक्र
बढती है, बढ़ी जाती है, हर रोज़ ॥
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