Thursday 19 December 2013

...बूढ़े रिश्ते

गिरते पत्ते देख देख कर
दरख़्त पुराना सोच रहा है
ना कोई तेज़ हवा आई है
ना कोई पतझड़ गुज़रा है
क्या मुझे, नज़र लगी है कोई
या ऋतु-का यौवन उतरा है
कैसे कई बरस के रिश्ते
आज जमीं पर गिरे पड़े हैं
एक एक कर ये सभी उगे थे
एक एक कर ही सब बिछड़े हैं ।।

उजड़ी रंगत देख देख कर
बूढ़ा बरगद सोच रहा है
कितने सावन आँखों देखे
कितने पतझड़ गुजर गए
पात पुराने गिरते ही हैं
फिर आते हैं पात नए
पर कैसे मोह विगत कर दूं
हम संग बढ़े संग खेले हैं
सर्दी-गर्मी, धूप-छांव
संग आंधी-पाला झेले हैं ।।

बिखरे रिश्ते देख देख कर
शख्स पुराना सोच रहा है
अब ये कैसी हवा चली है
कैसी परिभाषा बदली है
आजीवन के संगी थे जो
फिर रिश्तों को सोच रहे
वर्षों, पेड़ों को क्या सीचेंगे?
हफ़्तों की फसलें रोप रहे

बलुई ज़मीन पर बड़े दरख़्त
कभी नहीं लहराये हैं
छुई मुई से नाते हो जब
छूते ही मुरझाये हैं ।।

रिश्ते, बूढ़े होते देख देख कर
दरख़्त पुराना सोच रहा है ।।

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