Monday 22 April 2013

फफक के रो पड़ी वो थी

1993 में बलात्कार जैसे जघन्य अपराध कम ही सुनने को मिलते थे, 20 वर्ष की आयु थी, मन बहुत कच्चा था, सही मायनों में पीड़ित की पीड़ा समझ पाने जितनी अकल आयी नहीं थी लेकिन इतना ज्ञान जरूर था कि उस पिता पर क्या बीती होगी, जिसकी आत्मा बस्ती है उस बच्ची में, जिसकी जरा सी पीड़ा से रात भर उसे नींद नहीं आती, इतने बड़े कष्ट पर उसको कितनी पीड़ा हुई होगी | 

शिल्प संबंधी बहुत सी त्रुटियाँ इस रचना में होंगी, फिर भी ये मेरे दिल के बहुत करीब है ...

अश्रु पूर्ण चक्षु थे, विराट गम ह्रदय में था
नहीं किसी ह्रदय में थी, पड़ी कहीं कहर में थी
मिली थी जब मुझे ख़ुशी, फफक के रो पड़ी वो थी |

झुकी झुकी वो जा रही, जाने क्यूँ सिमट गयी
देख मुझे दौड़ के, आ के यूँ लिपट गयी
जैसे मुझसे दूर हो, जहाँ में खो गयी वो थी
मिली थी जब मुझे ख़ुशी, फफक के रो पड़ी वो थी |

नोच के खचोट के, किया था उसका हाल ये
नग्न अंग शील भंग, था कलंक भाल पे
नेत्र उसके बंद थे, गिर के सो पड़ी वो थी
मिली थी जब मुझे ख़ुशी, फफक के रो पड़ी वो थी |

आह एक निकल गयी, देख उसके हाल को
रूह तक विकल भई, पढ़ के उस सवाल को
नीर नयन में लिए, पूछ जो रही वो थी
मिली थी जब मुझे ख़ुशी, फफक के रो पड़ी वो थी |

शांति की कांति अब, थी नहीं ललाट पे
गौर वर्ण पर उतर आये साए रात के
इस जहां की भीड़ में खबर बनी खड़ी वो थी
मिली थी जब मुझे ख़ुशी, फफक के रो पड़ी वो थी |

अस्थियाँ ही शेष थीं, वो मात्र अवशेष थी
या मेरी परी लिए कोई छद्म वेश थी
ठोकरों में थी पड़ी, कभी मेरी मड़ी जो थी
मिली थी जब मुझे ख़ुशी, फफक के रो पड़ी वो थी |

बाहुपाश में पड़ी, सिसक सिसक वो रो रही
अपलक निहारती, नींद में वो खो रही
इस जहाँ में बस जीवित और दो घड़ी वो थी
मिली थी जब मुझे ख़ुशी, फफक के रो पड़ी वो थी |

चेतना रहित नयन, शून्य में निहारते
अधर अगर हिले भी तो, बस मुझे पुकारते
असहाय सा खड़ा था मैं, दर्द से भरी वो थी
मिली थी जब मुझे ख़ुशी, फफक के रो पड़ी वो थी |

लिपटी ही जा रही कि छूट नहीं जाऊं मैं
और फिर मना रही कि रूठ नहीं जाऊं मैं
मोतियों की साँस की टूटती लड़ी वो थी
मिली थी जब मुझे ख़ुशी, फफक के रो पड़ी वो थी |

हर एक पल में दूर वो, और दूर जा रही
आत्मा भी रो पड़े, इस तरह बुला रही
तड़प रही थी आत्मा कि अंग संग जुडी वो थी
मिली थी जब मुझे ख़ुशी, फफक के रो पड़ी वो थी ||

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