Friday 7 June 2013

धूप ने खिड़की बदल ली है !

धूप ने खिड़की बदल ली है !
अब वो उस पुरानी खिड़की से नहीं आती
इधर से आती है,
और इतने से ही बदल जाती हैं
अँधेरे और रौशनी की जगहें
बदल जाते हैं दीवारों के रंग
और बदल जाता है कमरा मेरा ॥

धूप ने खिड़की बदल ली है !
अब चमकती दीवार इधर की है
और उस पुरानी दीवार पर
अँधेरा ही रहता है ।
नाखून से खुरच कर बनाए
वो आड़े टेढ़े निशान
अब साफ़ नज़र नहीं आते ।
अभी तो समझ भी ना पाया था
क्यूँ खींचे थे और तब तक,
धूप ने खिड़की बदल ली है ॥

धूप ने खिड़की बदल ली है !
और बहुत से
नए साये नज़र आने लगे हैं,
निरंकुश साये !
पुराने साये कमरे का हिस्सा से थे
इसलिए कभी साये लगे ही नहीं
और ये नए अजनबी साए
किसी अनचाहे मेहमान की तरह
कब्जा किये बैठे हैं ।
अब जाने कब सूर्य उत्तरायण हों ॥

धूप ने खिड़की बदल ली है !
और किसी ढीठ की तरह
सबसे पीछे के कोने पे जा बैठी है
मेरे साँझ से कोने पे !
वो कोना जो मेरे अंतर के अन्धकार को
समेट लेता था खुद में
मुझे छुपा लेता
और कोई देख नहीं सकता था
नमकीन पानी के सूखे निशानों को
बेवक्त की अजानों को !
मगर अब धूप ने खिड़की बदल ली है ॥

रिश्ते यूँ ही अचानक नहीं बदलते
परिभाषाएं बदलती हैं
और किसी दिन अचानक
बेधड़क वो घुस आती है
नितांत मेरे कमरे में
अपना हिस्सा मांगने
तमाचा मार कर उठाती है
बताती है कि हिस्सेदार और भी हैं
और तब पता चलता है
धूप ने खिड़की बदल ली है
अब वो उस पुरानी खिड़की से नहीं आएगी,
कभी नहीं आयेगी ॥

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