Saturday 21 April 2012

निकलती है ज़िंदगी

धुएं की तरह हाथ से फिसलती है ज़िंदगी
हथेली पे रक्खी बर्फ सी पिघलती है ज़िंदगी
सारे जतन सारे मनन खाली ही जायेंगे
हर क़दम से आगे एक क़दम, चलती है ज़िंदगी ||

मंज़िल के फासलों को समय की लगाम है
अपने नियत समय पे ही हो जानी शाम है
अब साँसों से तेज अपनी चाल कर सके तो ठीक
मुट्ठी में बंद रेत सी  निकलती  है ज़िंदगी ||

है कौन भला शख्श जो रस्ता दिखायेगा
हर सर पे है तलवार, सर खुद को बचायेगा
अपनी लड़ाई खुद ही अगर लड़ सके तो ठीक
झुलसी अगर तो मोम सी गलती है ज़िंदगी ||

या रब मेरे कदमों में थोड़ी और जान दे
मेरे गुनाह माफ़ कर हाथों को थाम ले
तेरी खुदाई मुझपे करम कर सके तो ठीक
साँसों के साथ जिस्म में जलती है ज़िंदगी ||
(22.02.02)

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