Monday 9 April 2012

वो...

भुला दिया उन्होंने हमें, यकबयक इस क़दर,
लगता आ गया रकीब कोई, फिर से शहर में 

जिनके आये गए पैगाम, हर रोज़ हर पहर,
अब तलाशते है उनको हम, हरएक खबर में 
(द्वारा : अमित )

बेख़ौफ़ तैरते रहे वो अब तक तो ख्वाब में,
नश्तर से चुभ रहें हैं क्यूँ, लगातार नज़र में 

जाँ ले ही जाएगी ये लगन, लगता है इस दफा,
हद से हद्तर उठा है दर्द, इस बार जिगर में 

उनकी तो ना वाकिफियत में नुमाईशें रहीं,
दिल, जाँ, दो जहाँ से गया, बेकार इधर मैं 

सुनते थे इश्क में कई दुनियां बदल गयीं,
फिरते हैं दर बदर से अब, बेज़ार शहर में 

इन पत्थरों ने कम से कम इतना बता दिया,
घरौंदे थे कई बसे हुए इस एक शज़र में 

वो दिल नहीं है जिसके धड़कने से साँस है,
हैं और भी पुर्जे यहाँ हर एक बशर में 

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