Sunday 15 April 2012

उपेक्षित

बरात जा रही है
रौशनी, स्वयं को परिवर्तित कर रही है
संगीत की तीव्र धुनें
पैरों को
थिरकने पर विवश कर रही हैं |

एक विशाल जनसमूह
वृद्ध-युवा-बच्चे-महिलाएं
या यूं कहें
सम्बन्धी-मित्र-पड़ोसी-शुभचिंतक
सभी कतारों को बनाते बिगड़ते
मध्यम गति से
चलते जाते हैं |

प्रथम पंक्ति में
युवा एवं बच्चे नाच रहे हैं
कुछ वृद्ध भी हैं - अधेड़ भी
एक लय है
एक उन्माद है |

मगर

कोई है
जो नाच तो रहा है
या शायद
नाचने का अथक प्रयास कर  रहा है  |

भाव विहीन चेहरा है
कोई कुंठा है
या मानसिक अंतरद्वंद
औरों के साथ
स्वयं को लाने की प्रतिस्पर्धा
औरों के साथ स्वयं को
रखने का प्रयास |

ऐसा क्यूँ होता है ?
कोई वजह तो है
अभाव है
जो उसे पीड़ित कर रहा है
जो असमान्य कर रहा है
सामान्य से ज़रा सी बदली दशाओं में |

मैंने महसूस किया है
वो उपेक्षित  रहा है
प्रारंभ से ही
हर उस विषय पर
जो उसका अधिकार रहा था
मनुष्य होने के नाते |
(25.06.99)

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