Thursday 12 April 2012

प्रकृति जब जागेगी

बलिदान कहो या आहूति
दान कहो या त्याग
करना होगा!
अतृप्त क्षुधा के मौन का
है अंतराल इतना लम्बा
भरना होगा!
सूख चुके हैं वक्षोरूह
अब मत नोचो
होगा कुरूप कितना भविष्य
कुछ तो सोचो
समय रहे न चेते तो
यह तय समझो
प्रस्ताव नहीं कुछ भी होगा
निर्णय समझो
जब कभी मौन ये टूटेगा
निश्चेष्ट चेतना जागेगी
मांगेगी तो हे मानव!
प्रकृति लहू ही मांगेगी |
(11.10.98)

No comments:

Post a Comment